शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015


हरे चारे को संरक्षित करने की विधियाँ

पशुओं से अधिकतम दुग्धउत्पादन प्राप्त करने के लिए उन्हें प्रर्याप्त मात्रा में पौषिटक चारे की आवश्यकता होती है। इन चारों को पशुपालक या तो स्वयं उगाता हैं या फिर कहीं और से खरीद कर लाता है। चारे को अधिकांशत: हरी अवस्था में पशुओं को खिलाया जाता है तथा इसकी अतिरिक्त मात्रा को सुखाकर भविष्य में प्रयोग करने के लिए भंडारण कर लिया जाता है। ताकि चारे की कमी के समय उसका प्रयोग पशुओं को खिलाने के लिए किया जा सके। इस तरह से भंडारण करने से उसमें पोषक तत्व बहुत कम रह जाते है। इसी चारे का भंडा़रण यदि वैज्ञानिक तरीके से किया जाये तो उसकी पौषिटकता में कोर्इ कमी नहीं आती तथा कुछ खास तरीकों से इस चारे को उपचारित करके रखने से उसकी पौषिटकता को काफी हद तक बढाया भी जा सकता है।

चारे को भंडारण करने की निम्न विधियाँ है।

हे बनाना: हे बनाने के लिए हरे चारे या घास को इतना सुखाया जाता है जिससे कि उसमें नमी कि मात्रा 15-20 प्रतिषत तक ही रह जाए। इससे पादप कोशिकाओं तथा जीवाणुओं की एन्जाइम क्रिया रूक जाती है लेकिन इससे चारे की पौषिटकता में कमी नहीं आती, हे बनाने के लिए लोबिया, बरसीम, रिजका, लेग्यूम्स तथा ज्वार, नेपियर, जवी, बाजरा, ज्वार, मक्की, गिन्नी, अंजन आदि घासों का प्रयोग किया जाता है लेग्यूम्स घासों में सुपाच्य तत्व अधिक होते हैं तथा इसमें प्रोटीन व विटामिन ए डी व र्इ भी प्रर्याप्त मात्रा में पाए जाते है। दुग्ध उत्पादन के लिए ये फसलें बहुत उपयुक्त होती हैंै। हे बनाने के लिए चारा सुखाने हेतु निन्नलिखित तीन विधियों में से कोर्इ भी विधि अपनायी जा सकती है

 चारे को परतों में सुखाना: जब चारे की फसल फूल आने वाली अवस्था में होती है तो उसे काटकर परतों में पूरे खेत में फैला देते हैं तथा बीच-बीच में उसे पलटते रहते हैं जब तक कि उसमें पानी की मात्रा लगभग 15: तक न रह जाए। इसके बाद इसे इकðा कर लिया जाता है तथा ऐसे स्थान पर जहां वर्षा का पानी न आ सके इसका भंडारण कर लिया जाता है।

चारे को गðर में सुखाना: इसमें चारे को काटकर 24 घण्टों तक खेत में पड़ा रहने देते हैं इसके बाद इसे छोटी-छोटी ढेरियों अथवा गðरों में बांध कर पूरे खेत में फैला देते हैं। इन गðरों को बीच-बीच में पलटते रहते हैं जिससे नमी की मात्रा घट कर लगभग 18: तक हो जाए चारे को तिपार्इ विधि द्वारा सुखाना -जहां भूमि अधिक गीली रहती हो अथवा जहां वर्षा अधिक होती हो ऐसे स्थानों पर खेतों में तिपाइयां गाढकर चारे की फसलों को उन पर फैला देते हैं इस प्रकार वे भूमि के बिना संपर्क में आए हवा व धुप से सूख जाती है कर्इ स्थानों पर घरों की छत पर भी घासों को सुखा कर हे बनाया जाता है।

 चारे का यूरिया द्वारा उपचार: सूखे चारे जैसे भूसा (तूड़ीपुराल आदि में पौषिटक तत्व लिगनिन के अंदर जकडे़ रहते है जोकि पशु के पाचन तन्त्र द्वारा नहीं किए जा सकते इन चारों को कुछ रासायनिक पदार्थो द्वारा उपचार करके इनके पोषक तत्वों को लिगनिन से अलग कर लिया जाता है इसके लिए यूरिया उपचार की विधि सबसे सस्ती तथा उत्तम है।

 उपचार की विधि : 

एक किवंटल सूखे चारे जैसे पुआल या तूडी़ के लिए चार किलो यूरिये को 50 किलो साफ पानी में घोल बनाते है चारे को समतल तथा कम ऊंचार्इ वाले स्थान पर 3-4 मीटर की गोलार्इ में 6 ऊंचार्इ की तह में फैला कर उस पर यूरिया के घोल का छिड़काव करते हंै चारे को पैरों से अच्छी तरह दबा कर उस पर पुन: सूखे चारे की एक और पर्त बिछा दी जाती है और उस पर यूरिया के घोल का समान रूप से छिड़काव किया जाता है इस प्रकार परत के ऊपर के परत बिछाकर 25 किवंटल की ढेरी बनाकर उसे एक पोलीथीन की शीट से अच्छी तरह ढक दिया जाता है। यदि पोलीथीन की शीट उपलब्ध न हो तो उपचारित चारे की ढेरी को गुम्बदनुमा बनाते हैं। जिसे ऊपर से पुआल के साथ मिटटी का लेप लगाकर ढक दिया जाता है

उपचारित चारे को 3 सप्ताह तक ऐसे ही रखा जाता है जिससे उसमें अमोनिया गैस बनती है जो घटिया चारे को पौषिटक तथा पाच्य बना देती है इसके बाद इस चारे को पषु को खालिस या फिर हरे चारे के साथ मिलाकर खिलाया जा सकता है

यूरिया उपचार से लाभ

 1. उपचारित चारा नरम व स्वादिष्ट होने के कारण पशु उसे खूब चाव से खाते हैं तथा चारा बर्बाद नहीं होता

 2. पांच या 6 किलों उपचारित पुआल खिलाने से दुधारू पशुओं में लगभग 1 किलों दूध की वृद्वि हो सकती है

 3. यूरिया उपचारित चारे को पशु आहार में समिमलित करने से दाने में कमी की जा सकती है जिससे दूध के उत्पादन की लागत कम हो सकती है

 4. बछडे़ बचिछ यों को यूरिया उपचारित चारा खिलाने से उनका वजन तेजी से बढ़ता है तथा वे स्वस्थ दिखायी देते है

 सावधानियाँ :

 1. यूरिये का घोल साफ पानी में तथा यूरिया की सही मात्रा के साथ बनाना चाहिए

 2. घोल में यूरिया पूरी

पशुओ को केसा भोजन दे



द्रप्स सिंचाई

द्रप्स सिंचाई का योजना-चित्र

भारत के छिनवाल में केले की टपक सिंचाई की व्यवस्था
द्रप्स सिंचाई या 'ड्रिप इर्रिगेशन' (Drip irrigation या trickle irrigation या micro irrigation या localized irrigation), सिंचाई की एक विशेष विधि है जिसमें पानी और खाद की बचत होती है। इस विधि में पानी को पौधों की जड़ों पर बूँद-बूंद करके टपकाया जाता है। इस कार्य के लिए वाल्व, पाइप, नलियों तथा एमिटर का नेटवर्क लगाना पड़ता है। इसे 'टपक सिंचाई' या 'बूँद-बूँद सिंचाई' भी कहते हैं।

टपक या बूंद-बूंद सिंचाई एक ऐसी सिंचाई विधि है जिसमें पानी थोड़ी-थोड़ी मात्र में, कम अन्तराल पर, प्लास्टिक की नालियों द्वारा सीधा पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है। परम्परागत सतही सिंचाई (conventional irrigation) द्वारा जल का उचित उपयोग नहीं हो पाता, क्योंकि अधिकतर पानी, जोकि पौधों को मिलना चाहिए, जमीन में रिस कर या वाष्पीकरण द्वारा व्यर्थ चला जाता है। अतः उपलब्ध जल का सही और पूर्ण उपयोग करने के लिए एक ऐसी सिंचाई पद्धति अनिवार्य है जिसके द्वारा जल का रिसाव कम से कम हो और अधिक से अधिक पानी पौधे को उपलब्ध हो पाये।

कम दबाव और नियंत्रण के साथ सीधे फसलों की जड़ में उनकी आवश्यकतानुसार पानी देना ही टपक सिंचाई है। टपक सिंचाई के माध्यम से पौधों को उर्वरक आपूर्ति करने की प्रक्रिया फर्टिगेशन कहलाती है, जो कि पोषक तत्वों की लीचिंग व वाष्पीकरण नुकसान पर अंकुश लगाकर सही समय पर उपयुक्त फसल पोषण प्रदान करती है।

टपक सिंचाई पद्धति की मुख्य विशेषताएँ

1- पानी सीधे फसल की जड़ में दिया जाता है।
2- जड़ क्षेत्र में पानी सदैव पर्याप्त मात्र में रहता है।
3- जमीन में वायु व जल की मात्र उचित क्षमता स्थिति पर बनी रहने से फसल की वृद्धि तेज़ी से और एक समान रूप से होती है।
4- फसल को हर दिन या एक दिन छोड़कर पानी दिया जाता है।
5- पानी अत्यंत धीमी गति से दिया जाता है।
टपक सिंचाई के लाभ

1- उत्पादकता और गुणवत्ता : टपक सिंचाई में पेड़ पौधों को प्रतिदिन जरूरी मात्रा में पानी मिलता है। इससे उन पर तनाव नहीं पड़ता। फलस्वरूप फसलों की बढ़ोतरी व उत्पादन दोनों में वृद्धि होती है। टपक सिंचाई से फल, सब्जीऔर अन्य फसलों के उत्पादन में 20% से 50% तक बढ़ोतरी संभव है।
2- पानी : टपक सिंचाई द्वारा 30 से 60 प्रतिशत तक सिंचाई पानी की बचत होती है।
3- जमीन : ऊबड़-खाबड़, क्षारयुक्त, बंजर जमीन शुष्क खेती वाली, पानी के कम रिसाव वाली जमीन और अल्प वर्षा की क्षारयुक्त जमीन और समुद्र तटीय जमीन भी खेती हेतु उपयोग में लाई जा सकती है।
4- रासायनिक खाद : फर्टिगेशन से पोषकतत्व बराबर मात्र में सीधे पौधोंकी जडों में पहुंचाऐ जाते हैं, जिसकी वजह से पौधे पोषक तत्वोंका उपयुक्त इस्तेमाल कर पाते हैं तथा प्रयोग किये गए उर्वरकों में होने वाले विभिन्ननुकसान कम होते हैं, जिससे पैदावार में वृद्धि होती है। इस पद्धति द्वारा 30 से 45 प्रतिशत तकरासायनिक खाद की बचत की जा सकती है।
5- खरपतवार : टपक सिंचाई में पानी सीधे फसल की जड़ों में दिया जाता है। आस-पास की जमीन सूखी रहने से अनावश्यक खरपतवार विकसित नहीं होते। इससे जमीन के सभी पौष्टिक तत्व केवल फसल को मिलते हैं।
6- फसल में कीट व रोग का प्रभाव : टपक/इनलाइन पद्धति से पेड़-पौधों का स्वस्थ विकास होता है। जिनमें कीट तथा रोगों से लड़ने कीज्यादा क्षमता होती है। कीटनाशकों पर होने वाले खर्चे में भी कमी होती है।
7- टपक सिंचाई में होने वाला खर्च और कार्यक्षमता : टपक/इनलाइन सिंचाई पद्धति उपयोग के कार" श-जड़ के क्षेत्र को छोड़कर बाकी भाग सूखा रहने से निराई-गुड़ाई, खुदाई, कटाई आदि काम बेहतर ढंग से किये जा सकते हैं। इससे मजदूरी, समय और पैसे तीनों की बचत होती है।
टपक सिंचाई प्रणाली के घटक


टमाटर की टपक सिंचाई
टपक संयन्त्र के प्रमुख भाग निम्नानुसार हैं-

1- हेडर असेंबली

2- फिल्टर्स - हायड्रोसायक्लोन, सैंड और स्क्रीन फिल्टर्स

3- रसायन और खाद देने के साधन - व्हेंचुरी, फर्टिलाइज़र टैंक

4- मेनलाइन

5- सबमेन लाइन

6- वॉल्व

7- लेटरल लाइन (पॉलीट्यूब)

8- एमीटर्स - ऑनलाइन/इनलाइन/मिनी स्प्रिंकलर/जेट्स

हेडर असेंबली
हेडर असेंबली मतलब बाईपास, नॉन रिटर्न वॉल्व, एअर रिलीज़ वॉल्व आदि। टपक सिंचाई का दबाव और गति नियंत्रित करने के लिये बाईपास असेंब्ली का उपयोग किया जाता है।

फिल्टर
पानी में मौजूद मिट्टी के कणों, कचरा, शैवाल (काई) आदि से ड्रिपर्स के छिद्र बंद होने की संभावना रहती है। इस प्रक्रिया में स्क्रीन फिल्टर, सैंड फिल्टर, सैंडसेपरेटर, सेटलिंग टैंक आदि का समावेश होता है। पानी में रेत अथवा मिट्टी होने पर हाइड्रोसाइक्लॉन फिल्टर का उपयोग किया जाना चाहिए। पानी में शैवाल (काई), पौधों के पत्ते, लकड़ी आदि सूक्ष्म जैविक कचरा 
द्रप्स सिंचाई

द्रप्स सिंचाई का योजना-चित्र

भारत के छिनवाल में केले की टपक सिंचाई की व्यवस्था
द्रप्स सिंचाई या 'ड्रिप इर्रिगेशन' (Drip irrigation या trickle irrigation या micro irrigation या localized irrigation), सिंचाई की एक विशेष विधि है जिसमें पानी और खाद की बचत होती है। इस विधि में पानी को पौधों की जड़ों पर बूँद-बूंद करके टपकाया जाता है। इस कार्य के लिए वाल्व, पाइप, नलियों तथा एमिटर का नेटवर्क लगाना पड़ता है। इसे 'टपक सिंचाई' या 'बूँद-बूँद सिंचाई' भी कहते हैं।

टपक या बूंद-बूंद सिंचाई एक ऐसी सिंचाई विधि है जिसमें पानी थोड़ी-थोड़ी मात्र में, कम अन्तराल पर, प्लास्टिक की नालियों द्वारा सीधा पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है। परम्परागत सतही सिंचाई (conventional irrigation) द्वारा जल का उचित उपयोग नहीं हो पाता, क्योंकि अधिकतर पानी, जोकि पौधों को मिलना चाहिए, जमीन में रिस कर या वाष्पीकरण द्वारा व्यर्थ चला जाता है। अतः उपलब्ध जल का सही और पूर्ण उपयोग करने के लिए एक ऐसी सिंचाई पद्धति अनिवार्य है जिसके द्वारा जल का रिसाव कम से कम हो और अधिक से अधिक पानी पौधे को उपलब्ध हो पाये।

कम दबाव और नियंत्रण के साथ सीधे फसलों की जड़ में उनकी आवश्यकतानुसार पानी देना ही टपक सिंचाई है। टपक सिंचाई के माध्यम से पौधों को उर्वरक आपूर्ति करने की प्रक्रिया फर्टिगेशन कहलाती है, जो कि पोषक तत्वों की लीचिंग व वाष्पीकरण नुकसान पर अंकुश लगाकर सही समय पर उपयुक्त फसल पोषण प्रदान करती है।

टपक सिंचाई पद्धति की मुख्य विशेषताएँ

1- पानी सीधे फसल की जड़ में दिया जाता है।
2- जड़ क्षेत्र में पानी सदैव पर्याप्त मात्र में रहता है।
3- जमीन में वायु व जल की मात्र उचित क्षमता स्थिति पर बनी रहने से फसल की वृद्धि तेज़ी से और एक समान रूप से होती है।
4- फसल को हर दिन या एक दिन छोड़कर पानी दिया जाता है।
5- पानी अत्यंत धीमी गति से दिया जाता है।
टपक सिंचाई के लाभ

1- उत्पादकता और गुणवत्ता : टपक सिंचाई में पेड़ पौधों को प्रतिदिन जरूरी मात्रा में पानी मिलता है। इससे उन पर तनाव नहीं पड़ता। फलस्वरूप फसलों की बढ़ोतरी व उत्पादन दोनों में वृद्धि होती है। टपक सिंचाई से फल, सब्जीऔर अन्य फसलों के उत्पादन में 20% से 50% तक बढ़ोतरी संभव है।
2- पानी : टपक सिंचाई द्वारा 30 से 60 प्रतिशत तक सिंचाई पानी की बचत होती है।
3- जमीन : ऊबड़-खाबड़, क्षारयुक्त, बंजर जमीन शुष्क खेती वाली, पानी के कम रिसाव वाली जमीन और अल्प वर्षा की क्षारयुक्त जमीन और समुद्र तटीय जमीन भी खेती हेतु उपयोग में लाई जा सकती है।
4- रासायनिक खाद : फर्टिगेशन से पोषकतत्व बराबर मात्र में सीधे पौधोंकी जडों में पहुंचाऐ जाते हैं, जिसकी वजह से पौधे पोषक तत्वोंका उपयुक्त इस्तेमाल कर पाते हैं तथा प्रयोग किये गए उर्वरकों में होने वाले विभिन्ननुकसान कम होते हैं, जिससे पैदावार में वृद्धि होती है। इस पद्धति द्वारा 30 से 45 प्रतिशत तकरासायनिक खाद की बचत की जा सकती है।
5- खरपतवार : टपक सिंचाई में पानी सीधे फसल की जड़ों में दिया जाता है। आस-पास की जमीन सूखी रहने से अनावश्यक खरपतवार विकसित नहीं होते। इससे जमीन के सभी पौष्टिक तत्व केवल फसल को मिलते हैं।
6- फसल में कीट व रोग का प्रभाव : टपक/इनलाइन पद्धति से पेड़-पौधों का स्वस्थ विकास होता है। जिनमें कीट तथा रोगों से लड़ने कीज्यादा क्षमता होती है। कीटनाशकों पर होने वाले खर्चे में भी कमी होती है।
7- टपक सिंचाई में होने वाला खर्च और कार्यक्षमता : टपक/इनलाइन सिंचाई पद्धति उपयोग के कार" श-जड़ के क्षेत्र को छोड़कर बाकी भाग सूखा रहने से निराई-गुड़ाई, खुदाई, कटाई आदि काम बेहतर ढंग से किये जा सकते हैं। इससे मजदूरी, समय और पैसे तीनों की बचत होती है।
टपक सिंचाई प्रणाली के घटक


टमाटर की टपक सिंचाई
टपक संयन्त्र के प्रमुख भाग निम्नानुसार हैं-

1- हेडर असेंबली

2- फिल्टर्स - हायड्रोसायक्लोन, सैंड और स्क्रीन फिल्टर्स

3- रसायन और खाद देने के साधन - व्हेंचुरी, फर्टिलाइज़र टैंक

4- मेनलाइन

5- सबमेन लाइन

6- वॉल्व

7- लेटरल लाइन (पॉलीट्यूब)

8- एमीटर्स - ऑनलाइन/इनलाइन/मिनी स्प्रिंकलर/जेट्स

हेडर असेंबली
हेडर असेंबली मतलब बाईपास, नॉन रिटर्न वॉल्व, एअर रिलीज़ वॉल्व आदि। टपक सिंचाई का दबाव और गति नियंत्रित करने के लिये बाईपास असेंब्ली का उपयोग किया जाता है।

फिल्टर
पानी में मौजूद मिट्टी के कणों, कचरा, शैवाल (काई) आदि से ड्रिपर्स के छिद्र बंद होने की संभावना रहती है। इस प्रक्रिया में स्क्रीन फिल्टर, सैंड फिल्टर, सैंडसेपरेटर, सेटलिंग टैंक आदि का समावेश होता है। पानी में रेत अथवा मिट्टी होने पर हाइड्रोसाइक्लॉन फिल्टर का उपयोग किया जाना चाहिए। पानी में शैवाल (काई), पौधों के पत्ते, लकड़ी आदि सूक्ष्म जैविक कचरा

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

कृषि उपकरण


ड्रिप से सिंचाई


अरहर की खेती केसे करे


अरहर  की खेती :- 
परिचय :-

अरहर की खेती अकेले या दूसरी फसलो के साथ सहफसली खेती के रूप में भी कर सकते है, सहफसली खेती के रूप में ज्यादातर ज्वार  बाजरा मक्का सोयाबीन की खेती की जा सकती हैI

अरहर की उन्नतशील प्रजातियाँ क्या होती है ?

अरहर की खेती के लिए दो प्रकार की उन्नतशील प्रजातियाँ उगाई  जाती है पहली अगेती प्रजातियाँ  होती है, जिसमे उन्नत प्रजातियाँ है पारस, टाइप २१, पूसा ९९२, उपास १२०, दूसरी पछेती या देर से पकने वाली प्रजातियाँ है बहार है, अमर है, पूसा ९ है, नरेन्द्र अरहर १ है आजाद अरहर १ ,मालवीय बहार, मालवीय चमत्कार जिनको देर से पकने वाली प्रजातियाँ के रूप से जानते है

अरहर की खेती के लिए जलवायु और भूमि किस प्रकार  की होनी चाहिए?

अरहर की खेती के लिए समशीतोसन जलवायु के साथ साथ वुवाई के समय ३० डिग्री सेंटीग्रे तापमान होना अति आवश्यक है अरहर की अच्छी उपज के लिए दोमट या बलुई दोमट भूमि अच्छी मानी  जाती है

 अरहर की फसल के लिए खेत की तैयारी कैसे करे?

खेत की पहली जुताई मिटटी पलटने वाले से करने की जरूरत होती है, उसके बाद दो तीन जुताई कल्टीवेटर से करना अति आवश्यक है, इसके बाद आखिरी जुताई के बाद 200-300 कुंतल गोबर की खाद मिलाकर पाटा लगाना अति आवश्यक होता हैI

अरहर की फसल के लिए वुवाई का कुछ उपयुक्त समय भी होता है ?

जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ है उनको जून के प्रथम सप्ताह में वुवाई करना वहुत  ही उचित साथ ही देर से पकने वाली प्रजातियाँ को जुलाई के प्रथम सप्ताह में वुवाई करे तो हम को वहुत अच्छी पैदावार मिलती है I

अरहर की बीज की मात्रा क्या हो और वुवाई किस प्रकार की जाए?

अरहर की जल्दी पकने  वाली प्रजातियाँ है, उनमे १५  से २० किलो ग्राम बीज एक हेक्टर के लिए प्रयाप्त होता है ,इसी प्रकार देर से पकने  वाली प्रजातियों के लिए १२ से १५ किलो ग्राम बीज एक हेक्टर के लिए प्रयाप्त होता है अरहर के बीज की वुवाई लाइनों में हल के पीछे करनी चाहिए लाइन से लाइन  की दुरी जल्दी पकने वाली प्रजातियों के लिए ४५ सेंटी मीटर पौध से पौध की दुरी २० सेंटी मीटर रखते है इसी प्रकार देर  से पकने वाली प्रजातियाँ उसमे लाइन से लाइन की दुरी ६० सेंटी मीटर कर सकते है ,और पौध से पौध की दुरी ३० सेंटी मीटर रख सकते है

अरहर की बीज वुवाई से पहले किस प्रकार से शोधित करे?

अरहर में वुवाई से पहले बीज को २ ग्राम थीरम या १ग्राम कार्बेन्दजिन से १ किलो ग्राम बीज को शोधित कर लेना चाहिए इसके बाद वुवाई से पहले राईजोवियम कल्चर के एक पैकेट को १० किलो ग्राम बीज को शोधित करके वुवाई कर देनी चाहिए जिस खेत में पहली वार अरहर की वुवाई की जा रही हो वहा पर कल्चर का प्रयोग बहुत आवश्यक  है

अरहर की फसल में सिचाई कब करनी चाहिए?

अरहर किअगेति खेती करने पर अक्टूबर के महीने में पछेती खेती दिसम्बर व जनवरी के माहीने में आवश्यकता अनुसार जरूरत पड़ने पर सिचाई करना चाहिए I

अरहर की फसल खाद एव उर्वरक का प्रयोग कितनी मात्रा में और कब किया जाना चाहिए?

मृदा परीक्षण कराके ही खाद एवं उर्वरक के बारे में सोचना चाहिए, खाद का प्रयोग खेत की तैयारी के समय कर सकते है, उर्वरक 15 किलो नाइट्रोजन 40 किलो ग्राम फास्फोरस तथा 20 किलो ग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रयोग किया जाए तो वहुत अच्छा रहता है, नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय प्रयोग करना चाहिए शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा वुवाई के 25-30 दिन बाद खड़ी फसल में टापड्रेसिंग के रूप में करे तो पैदावार अच्छी होती है

अरहर की फसल को रोगों से वचाव के लिए क्या करना चाहिए ?

इसमें मुख्य तरह उकुटहा वा वंजा रोग लगता है ,इस रोग उपचार के लिए बीज को ३ ग्राम थीरम व १ ग्राम काराब्न्दजिन  एक किलो ग्राम बीज को वुवाई से पहले शोधित करके वुवाई करनी चाहिए इससे उकता रोग से छुटकारा मिल सकता हैI

अरहर की फसल को कीटो से वचाव के लिए क्या करना चाहिए ?

अरहर में मुख्यतया फली वेधक पत्ती लपेटक अरहर की फल इस फसल को प्रभावित करती है ,इसके उपचार के लिए मोनोक्रोटोफास ३६ ई सी १००० लीटर पानी में घोल ले और छिडकाव करे तो इस रोग से छुटकारा मिल सकता है

अरहर की फसल की कटाई कब की जानी चाहिए?

अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ की कटाई वुवाई के १४० दिन से १५० दिन अथार्त १५ नवम्बर से १५ जनवरी तक की जाती है देर से पकने वाली प्रजातियाँ जो किसान भाई उगाते है ,उस फसल की कटाई २६०   से २७० दिन अथार्त  १५ मार्च से १५ अप्रैल की वीच कटाई की जाती है I

अरहर की फसल की उपज प्रति हेक्टर कितनी प्राप्त होती है?

अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजातियाँ की उपज १८षे२० कुंतल ले सकते है इसी तरीके से जो देर से पकने वाली प्रजातियाँ है उस फसल से २५ से ३० कुंतल उपज प्राप्त कर सकते है I

अगर आपको ऊपर दी गयी ज

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

गन्ने की खेती केसे करे


व्यू संपादन सुझाव योगदानकर्ता
अवस्था संपादित करने के स्वीकृत
गन्ने की खेती
CONTENTS
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
बोने का समय
जातियाँ
बीज की मात्रा एवं बोने की विधि
अन्तवर्तीय फसल
उर्वरक
निंदाई गुड़ाई
मिट्टी चढ़ाना
सिंचाई
बंधाई
पौध संरक्षण
गन्ने की पेंड़ी अधिक लाभकारी
किस्में
मुख्य फसल की कटाई
खेत की सफाई
कटी सतह पर उपचार
खाली जगह भरना
गरेड़ो को तोड़े
पर्याप्त खाद दें
सूखी पत्तियां बिछायें
भूमि का चुनाव एवं तैयारी

गन्ने के लिए अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है । ग्रीष्म में मिट्टी पलटने वाले हल सें दो बार आड़ी व खड़ी जुताई करें । अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में बखर से जुताई कर मिट्टी भुरभुरी कर लें तथा पाटा चलाकर समतल कर लें । रिजर की सहायता से 3 फुट की दूरी पर नालियां बना लें। परंतु वसंतु ऋतु में लगाये जाने वाले ( फरवरी - मार्च) गन्ने के लिए नालियों का अंतर 2 फुट रखें । अंतिम बखरनी के समय भूमि को लिंडेन 2% पूर्ण 10 किलो प्रति एकड़ से उपचारित अवश्य करें।
बोने का समय
गन्ने की अधिक पैदावार लेने के लिए सर्वोत्तम समय अक्टूबर - नवम्बर है । बसंत कालीन गन्ना फरवरी-मार्च में लगाना चाहिए ।
जातियाँ


गन्ने की उन्नत जांतियां निम्नानुसार है :-
स्म
उपज क्विं.प्रति एकड़
रस में शक्कर की मात्रा प्रतिशत
विवरण
अनुमोदित किस्में
1 शीघ्र (9 से 10 माह) में पकने वाली वाली
को. 7314
320-360
21.0
कीट प्रकोप कम होता है । रेडराट निरोधक / गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम/संपूर्ण म0प्र0के लिए अनुमोदित ।
को. 64
320-360
21.0
कीटों का प्रकोप अधिक, गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम, उत्तरी क्षेत्रों के लिए अनुमोदित ।
को.सी. 671
320-360
22.0
रेडराट निरोधक /कीट प्रकोप कम/ गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम
मध्य से देर से (12-14 माह) में पकने वाली
को. 6304
380-400
19.0
कीट प्रकोप कम, रेडराट व कंडुवा निरोधक, अधिक उपज जड़ी मध्यम सम्पूर्ण म0प्र0के लिए ।
को.7318
400-440
18.0
कीट कम, रेंडराट व कंडुवा निरोधक/ नरम, मधुशाला के लिए उपयोगी / उज्जैन सम्भाग के लिए
को. 6217
360-400
19.0
कीट प्रक्षेत्र कम/ रेडराट व कंडुवा निरोधक / नरम, मधुशाला के लिए उपयोगी/ उज्जैन संभाग के लिए ।
नई उन्नत किस्में
शीघ्र (9 -10 माह ) में पकने वाली
को. 8209
360-400
20.0
कीट प्रकोप कम / लाल सड़न व कडुवा निरोधक/शक्कर अधिक/जड़ी उत्तम / उज्जैन संभाग के लिए अनुमोदित ।
को. 7704
320-360
20.0
कीट प्रकोप कम/लाल सड़न व कडुवा निरोधक/शक्कर अधिक/जड़ी उत्तम / उज्जैन संभाग के लिए अनुमोदित ।
को. 87008
320-360
20.0
कीट प्रकोप कम / लाल सड़न व कडुवा निरोधक/शक्कर अधिक/जड़ी उत्तम / उज्जैन संभाग के लिए अनुमोदित ।
को. 87010
320-360
20.0
कीट प्रकोप कम / लाल सड़न व कडुवा निरोधक/शक्कर अधिक/जड़ी उत्तम / उज्जैन संभाग के लिए अनुमोदित ।
को जवाहर 86-141
360-400
21.0
कम कीट प्रकोप/रेडराट व कंडवा निरोधक /गुड़ हेतु उपयुक्त जड़ी उत्तम/ संपूर्ण म.प्र. के लिए ।
का.े जवाहर86-572
360-400
22.0
कम कीट प्रकोप/रेडराट व कंडवा निरोधक /गुड़ हेतु उपयुक्त/ जड़ी उत्तम/ संपूर्ण म.प्र. के लिए ।
मध्यम से देर (12-14 माह ) में पकने वाली
को. जवाहर 94-141
400-600
20.0
कीट प्रकोप कम/रेडराट व कंडवा निरोधक/ गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम/ संपूर्ण म0प्र0 के लिए ।
का.े जवाहर 86-600
400-600
22.2
कीट प्रकोप कम/रेडराट व कडुवा निरोधक/ गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम/ संपूर्ण म0प्र0 के लिए ।
को.जवाहर 86-2087
400-600
20.0
कीट प्रकोप कम होता है । रेडराट व कडुवा निरोधक है । गुड़ व जड़ी के लिए उत्तम /महाकौशल, छत्तीसगढ़ व रीवा संभाग के लिए अनुमोदित ।
बीज की मात्रा एवं बोने की विधिगन्ने के लिए 100-125 क्वि0 बीज या लगभग 1 लाख 25 हजार आंखें#हेक्टर गन्ने के छोटे छोटे टुकडे इस तरह कर लें कि प्रत्येक टुकड़े में दो या तीन आंखें हों । इन टुकड़ों को कार्बेंन्डाजिम-2 ग्राम प्रति लीटर के घोल में 15 से 20 मिनट तक डुबाकर कर रखें। इसके बाद टुकड़ों को नालियों में रखकर मिट्टी से ढंक दे। एवं सिंचाई कर दें या सिंचाई करके हलके से नालियों में टुकड़ों को दबा दें । अन्तवर्तीय फसल
अक्टूबर नवंबर में 90 से.मी. पर निकाली गई गरेड़ों में गन्ने की फसल बोई जाती है । साथ ही मेंढ़ों के दोनो ओर प्याज,लहसुन, आलू राजमा या सीधी बढ़ने वाली मटर अन्तवर्तीय फसल के रूप में लगाना उपयुक्त होता है । इससे गन्ने की फसल को कोई हानि नहीं होती । इससे 6000 से 10000 रूपये का अतिरिक्त लाभ होगा। वसंत ऋतु में गरेडों की मेड़ों के दोनों ओर मूंग, उड़द लगाना लाभप्रद है । इससे 2000 से 2800 रूपये प्रति एकड़ अतिरिक्त लाभ मिल जाता है।
उर्वरकगन्ने में 300 कि. नत्रजन (650 किलो यूरिया), 80 किलो स्फुर, (500 कि0 सुपरफास्फेट) एवं 90 किलो पोटाश (150 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्टर देवें। स्फुर व पोट
बोछारी विधी

बौछारी (स्प्रिंकलर) सिंचाई तकनीक अपनाएं- भरपूर
उपज पाएं
बौछारी या स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई में पानी
को छिड़काव के रूप में दिया जाता है। जिससे पानी
पौधों पर वर्षा की बूंदों जैसी पड़ती हैं। पानी की
बचत और उत्पादन की अधिक पैदावार के लिहाज से
बौछारी सिंचाई प्रणाली अति उपयोगी और
वैज्ञानिक तरीका मानी गई है। किसानों में सूक्ष्म
सिंचाई के प्रति काफी उत्साह देखी गई है। इस
सिंचाई तकनीक से कई फायदे हैं।
हमारे यहां बौछारी और बूंद.बूंद सिंचाई पर ज्यादा
ध्यान दिया जाए तो न केवल उत्पादन बढ़ाया जा
सकता हैए बल्कि कृषि की उन्नत तकनीक भी
विकसित की जा सकती है। असमतल भूमि और ऊंचाई
वाले क्षेत्र में भी बौछारी प्रणाली से खेती की जा
सकती है। इस तकनीक से श्रम की भी बचत होती है।
बौछारी से पानी सीधी पौधों पर ही गिरता है।
ऎसे में खरपतवार पर नियंत्रण रहता है। बीमारियों और
कीड़े.मकोड़ों की संभावनाएं कम रहती हैं। कृषि में इस
तकनीक के उपयोग से फसल पैदावार एवं गुणवत्ता में
वृद्धि के साथ उत्पादन लागत में भी कमी आएगी।
बौछारी सिंचाई प्रणाली के मुख्य घटक:
बौछारी सिंचाई पद्धति में मुख्य भाग पम्प, मुख्य
नली, बगल की नली, पानी उठाने वाली नली एवं
पानी छिड़काव वाला फुहारा होता है।
बौछारी सिंचाई प्रणाली की क्रिया विधि:
बौछारी सिंचाई में नली में पानी दबाव के साथ पम्प
द्वारा भेजा जाता है जिससे फसल पर फुहारा
द्वारा छिड़काव होता है। मुख्य नली बगल की
नलियों से जुड़ी होती है। बगल की नलियों में पानी
उठाने वाली नली जुड़ी होती है।
पानी उठाने वाली नली जिसे राइजर पाइप कहते हैं,
इसकी लम्बाई फसल की लम्बाइ्र्र पर निर्भर करती है।
क्योंकि फसल की ऊचाई जितनी रहती है राइजर
पाइप उससे ऊंचा हमेषा रखना पड़ता है। इसे
सामान्यतः फसल की अधिकतम लम्बाई के बराबर
होना चाहिए। पानी छिड़काव वाले हेड घूमने वाले
होते हैं जिन्हें पानी उठाने वाले पाइप से लगा दिया
जाता है।
पानी छिड़कने वाले यंत्र भूमि के पूरे क्षेत्रफल पर
अर्थात फसल के ऊपर पानी छिड़कते हैं। दबाव के
कारण पानी काफी दूर तक छिड़क जाता है। जिससे
सिंचाई होता है।
बौछारी सिंचाई से लाभ:
बौछारी सिंचाई के निम्नलिÂित लाभ हैं। जैसे-
सतही सिंचाई में पानी खेत तक पहुँचने में 15-20
प्रतिशत तक अनुपयोगी रहता है।
सिंचाई में एकसा पानी नहीं पहुँचता जबकि बौछारी
सिंचाई से सिंचित क्षेत्रफल 1.5 -2 गुना बढ़ जाता है
अर्थात् इस विधि से सिंचाई करने पर 25-50 प्रतिशत
तक पानी की सीधे बचत होती है।
जब पानी वर्षा की भांति छिड़का जाता है तो
भूमि पर जल भराव नहीं होता है जिससे मिट्टी की
पानी सोखने की दर की अपेक्षा छिड़काव कम होने
से पानी के बहने से हानि नहीं होती है।
जिन जगहों पर भूमि ऊची-नीची रहती है वहँा पर
सतही सिंचाई संभव नही हो पाती उन जगहों पर
बौछारी सिंचाई वरदान साबित होती है।
बौछारी सिंचाई बलुई मिट्टी एवं अधिक ढाल वाली
तथा ऊंची -नीची जगहों के लिए उपयुक्त विधि है।
इन जगहों पर सतही विधि से सिंचाई नहीं की जा
सकती है।
इस विधि से सिंचाई करने पर मृदा में नमी का उपयुक्त
स्तर बना रहता हैं जिसके कारण फसल की वृद्धि, उपज
और गुणवत्ता अच्छी रहती है।
इस विधि में सिंचाई के पानी के साथ घुलनशील
उर्वरक, कीटनाषी तथा जीवनाशी या
खरपतवारनाशी दवाओं का भी प्रयोग आसानी से
किया जा सकता है।
पाला पड़ने से पहले बौछारी सिंचाई पद्धति से
सिंचाई करने पर तापक्रम बढ़ जाने से फसल का पाले से
नुकसान नहीं होता है।
पानी की कमी, सीमित पानी की उपलब्धता वाले
क्षेत्रों में दुगुना से तीन गुना क्षेत्रफल सतही सिंचाई
की अपेक्षा किया जा सकता है।
रखरखाव एवं सावधानियाँ
बौछारी सिंचाई के प्रयोग के समय एवं प्रयोग के बाद
परीक्षण कर लेना चाहिए और कुछ मुख्य सावधानियाँ
रखने से सेट अच्छी तरह चलता है। जैसे- प्रयोग होने
वाला सिंचाई जल स्वच्छ तथा बालू एवं अत्यधिक
मात्रा घुलनशील तत्वों से युक्त नहीं होना चाहिए
तथा उर्वरकों, फफूंदी/खरपतवारनाशी आदि दवाओं के
प्रयोग के पश्चात सम्पूर्ण प्रणाली को स्वच्छ पानी
से सफाई कर लेना चाहिए।
प्लास्टिक वाशरों को आवश्यकतानुसार निरीक्षण
करते रहना चाहिए और बदलते रहना चाहिए। रबर सील
को साफ रखना चाहिए तथा प्रयोग के बाद अन्य
फिटिंग भागों को अलग कर साफ करने के उपरान्त
शुष्क स्थान पर भण्डारित करना चाहिए।
किशान दिवस
आप सभी को याद दिलाने की तो जरूरत नहीं  है फिर भी याद दिलाता हुँ कल 23 दिसम्बर किसान दिवस है आप सभी इसे एक पौधा लगा कर या फिर आप को जैसे अच्छा लगता है| आप सभी से निदेवन है की किसान दिवस आवश्य मनाये  अपने अन्न दाता के लिए |

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

गुलाब की उन्नत खेती



कैसे करे गुलाब के फूलों की खेती ?

परिचय

गुलाब की खेती बहुत पहले से पूरी दुनिया में की जाती हैI इसकी खेती पूरे भारतवर्ष में व्यवसायिक रूप से की जाती हैI गुलाब के फूल डाली सहित या कट फ्लावर तथा पंखुड़ी फ्लावर दोनों तरह के बाजार में व्यापारिक रूप से पाये जाते हैI गुलाब की खेती देश व् विदेश निर्यात करने के लिए दोनों ही रूप में बहुत महत्वपूर्ण हैI गुलाब को कट फ्लावर, गुलाब जल, गुलाब तेल, गुलकंद आदि के लिए उगाया जाता हैI गुलाब की खेती मुख्यतः कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्रा, बिहार, पश्चिम बंगाल ,गुजरात, हरियाणा, पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर, मध्य प्रदेश, आंध्रा प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में अधिक की जाती हैI



गुलाब की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु और भूमि की आवश्यकता होती है?

गुलाब की खेती उत्तर एवं दक्षिण भारत के मैदानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में जाड़े के दिनों में की जाती हैI दिन का तापमान 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तथा रात का तापमान 12 से 14 डिग्री सेंटीग्रेट उत्तम माना जाता हैI गुलाब की खेती हेतु दोमट मिट्टी तथा अधिक कार्बनिक पदार्थ वाली होनी चाहिएI जिसका पी.एच. मान 5.3 से 6.5 तक उपयुक्त माना जाता हैI



कौन-कौन सी उन्नतशील प्रजातियां है गुलाब की? 

गुलाब की लगभग 6 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती है प्रथम संकर प्रजातियां जिसमे कि क्रिमसन ग्लोरी, मिस्टर लिंकन, लवजान, अफकैनेडी, जवाहर, प्रसिडेंट, राधाकृषणन, फर्स्ट लव , पूजा, सोनिया, गंगा, टाटा सैंटानरी, आर्किड, सुपर स्टार, अमेरिकन हेरिटेज आदि हैI दूसरे प्रकार कि पॉलीएन्था इसमे अंजनी, रश्मी, नर्तकी, प्रीत एवं स्वाती आदिI तीसरे प्रकार कि फ़लोरीबण्डा जैसी कि बंजारन, देहली प्रिंसेज, डिम्पल, चन्द्रमा, सदाबहार, सोनोरा, नीलाम्बरी, करिश्मा सूर्यकिरण आदिI चौथे प्रकार कि गैंडीफलोरा इसमे क्वींस, मांटेजुमा आदिI पांचवे प्रकार कि मिनीपेचर ब्यूटी क्रिकेट, रेड फ्लस, पुसकला, बेबीगोल्ड स्टार, सिल्वर टिप्स आदि और अंत में छठवे प्रकार कि लता गुलाब इसमे काक्लेट, ब्लैक बॉय, लैंड मार्क, पिंक मेराडोन, मेरीकलनील आदि पाई जाती हैI



गुलाब की खेती करने के लिए लेआउट किस प्रकार से तैयार करते है और खेतो की तैयारी किस प्रकार करे?

सुंदरता की दृष्टि से औपचारिक लेआउट करके खेत को क्यारियो में बाँट लेते है क्यारियो की लम्बाई चौड़ाई 5 मीटर लम्बी 2 मीटर चौड़ी रखते हैI दो क्यारियो के बीच में आधा मीटर स्थान छोड़ना चाहिएI क्यारियो को अप्रैल मई में एक मीटर की गुड़ाई एक मीटर की गहराई तक खोदे और 15 से 20 दिन तक खुला छोड़ देना चाहिएI क्यारियो में 30 सेंटीमीटर तक सूखी पत्तियो को डालकर खोदी गयी मिट्टी से क्यारियो को बंद कर देना चाहिए साथ ही गोबर की सड़ी खाद एक महीने पहले क्यारी में डालना चाहिए इसके बाद क्यारियो को पानी से भर देना चाहिए साथ ही दीमक के बचाव के लिए फ़ालीडाल पाउडर या कार्बोफ्यूरान 3 जी. का प्रयोग करेI लगभग 10 से 15 दिन बाद ओठ आने पर इन्ही क्यारियो में कतार बनाते हुए पौधे व् लाइन से लाइन की दूरी 30 गुने 60 सेंटीमीटर राखी जाती हैI इस दूरी पर पौधे लगाने पर फूलो की डंडी लम्बी व् कटाई करने में आसानी रहती हैI




गुलाब की खेती करने के लिए पौध तैयार किस तरह से करे?

जंगली गुलाब के ऊपर टी बडिंग द्वारा इसकी पौध तैयार होती हैI जंगली गुलाब की कलम जून-जुलाई में क्यारियो में लगभग 15 सेंटीमीटर की दूरी पर लगा दी जाती हैI नवम्बर से दिसंबर तक इन कलम में टहनियां निकल आती है इन पर से कांटे चाकू से अलग कर दिए जाते हैI जनवरी में अच्छे किस्म के गुलाब से टहनी लेकर टी आकार कालिका निकालकर कर जंगली गुलाब की ऊपर टी में लगाकर पालीथीन से कसकर बाँध देते हैI ज्यो-ज्यो तापमान बढता है तभी इनमे टहनी निकल आती हैI जुलाई अगस्त में रोपाई के लिए पौध तैयार हो जाती हैI



गुलाब की खेती में पौधों की रोपाई किस प्रकार करते है?

पौधशाला से सावधानीपूर्वक पौध खोदकर सितम्बर-अक्टूबर तक उत्तर भारत में पौध की रोपाई करनी चाहिएI रोपाई करते समय ध्यान दे कि पिंडी से घास फूस हटाकर भूमि की सतह से 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर पौधों की रोपाई करनी चाहिएI पौध लगाने के बाद तुरंत सिंचाई कर देना चाहिएI




खाद और उर्वरको की आवश्यकता किस प्रकार पड़ती है गुलाब की खेती में ?

उत्तम कोटि के फूलो की पैदावार लेने के हेतु प्रूनिंग के बाद प्रति पौधा 10 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद मिट्टी में मिलाकर सिंचाई करनी चाहिएI खाद देने के एक सप्ताह बाद जब नई कोपल फूटने लगे तो 200 ग्राम नीम की खली 100 ग्राम हड्डी का चूरा तथा रासायनिक खाद का मिश्रण 50 ग्राम प्रति पौधा देना चाहिएI मिश्रण का अनुपात एक अनुपात दो अनुपात एक मतलब यूरिया, सुपर फास्फेट, पोटाश का होना चाहिएI



सिंचाई के लिए क्या तरीके अपनाये?

गुलाब
कीटनाशक का ज्यादा उपयोग
कृषि क्षेत्र की प्राथमिकता उत्पादकता को बनाये रखने तथा बढ़ाने मे बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए उत्तम बीज का होना अनिवार्य है। उत्तम बीजों के चुनाव के बाद उनका उचित बीजोपचार भी जरूरी है क्यों कि बहुत से रोग बीजो से फैलते है। अतः रोग जनको, कीटों एवं असामान्य परिस्थितियों से बीज को बचाने के लिए बीजोपचार एक महत्वपूर्ण उपाय है।

बीजोपचार के लाभ

अनुसंधान द्वारा पाया गया कि बीजोपचार के लाभ उत्तम पौधों, अच्छी गुणवत्ता, ऊँची पैदावार और रोगों तथा कीट नियंत्रण मे लगी पूंजी पर अच्छी आय के रूप में दिखाई देते है। परंतु आज भी ऐसे किसानों की संख्या बहुत अधिक है, जो अनुपचारित बीज बोते है। इसलिए उपचारित बीजों के लाभों का व्यापार प्रचार तथा प्रसार करना बहुत आवश्यक है।

बीजोढ़ रोगों का नियंत्रण:- छोटे दाने की फसलों, सब्जियों व कपास के बीज के अधिकांश बीजोढ़ रोगों के लिए बीज निसंक्रमण व बीज विग्रसन बहुत प्रभावकारी होता है।

मृदोढ़ रोगों का नियंत्रण:- मृदोढ़ कवक, जीवाणु व सूत्रकृमि से बीज व तरूण पौधों को बचाने के लिए बीजों को कवकनाशी रसायन से उपचारित किया जाता है, जिससे बीज जमीन मे सुरक्षित रहते है, क्योंकि बीजोपचार रसायन बीज के चारो और रक्षक लेप के रूप में चढ़ जाता है और बीज की बुवाई ऐसे जीवों को दूर रखता है।

अंकुरण मे सुधार:- बीजों को उचित कवकनाशी से उपचारित करने से उनकी सतह कवकों के आक्रमण से सुरक्षित रहती है, जिससे उनकी अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है। यदि बीज पर कवकों का प्रभाव बहुत अधिक होता है तो भंडारण के दौरान भी उपचारित सतह के कारण उनकी अंकुरण क्षमता बनी रहती है।
कीटों से सुरक्षा:- भंडार में रखने से पूर्व बीज को किसी उपयुक्त कीटनाशी से उपचारित कर देने से वह भंडारण के दौरान सुरक्षित रहता हैं कीटनाशी का चयन संबधित फसल बीज के प्रकार और भंडारण अवधि के आधार पर किया जाता है।
मृदा कीटों का नियंत्रण:- कीटनाशी और कीटनाशी का संयुक्त उपचार करने से बुआई के बाद मृदा में सुरक्षित रहता है और बीज अवस्था में उसका विकास निर्विधन होता है।

बीजोपचार की विधियाँ:

नमक के घोल से उपचार:- पानी में नमक का 2 प्रतिशत का घोल तैयार करे, इसके लिए 20 ग्राम नमक को एक लीटर पानी में अच्छी तरह मिलाएँ। इनमें बुवाई के लिए काम मे आने वाले बीजों को डालकर हिलाएँ। हल्के एवं रोगी बीज इस घोल में तैरने लगेंगे। इन्हे निथार कर अलग कर दें और पैंदे में बैठे बीजों को साफ पानी से धोकर सुखाले फिर फफूंदनाशक, कीटनाशक एवं जीवाणु कल्चर से उपचारित करके बोयें।

ताप का उपचार:- कुछ रोगों के जीवाणु जो बीज के अन्दर रहते है, इनकी रोकथाम के लिए बीजों को मई- जुन के महिनों में जब दिन का तापमान 40 से 50 सेन्टीग्रेड के मध्य होता है तक बीजों को 6 से 7 घण्टे तक पक्के फशॆ पर धूप लगा दे जैसे गेहूँ के कुंडूआ रोग में।

फफूंदनाशक दवाओं से उपचार:- बीजों को फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के लिए इन्हें पाउडर या तरल अवस्था में उपयोग कर सकते है। इन रसायनों के रक्षणीयता के आधार पर इन्हें दो भागों में बांटा गया है।
रोगनाशक: ये रसायन बीजोपचार के बाद बीज को एक बार रोगाणुनाशक बना देते है। परन्तु बुवाई के बाद ये रसायन अधिक समय तक सक्रिय नहीं हर पाते है।

रक्षक: इस प्रकार के रसायन बीज की सतह पर चिपक कर बुवाई के बाद पौध अवस्था मे भी रोगो से रक्षा करते है। अधिकतर बीजोपचार वाले रसायन या तो कार्बनिक पारद पदार्थ होते है या अपारद पदार्थ जैसे सल्फेट, कापर कार्बोनेट आदि।

जीवाणु कल्चर से उपचार: विभिन्न जीवाणु कल्चर से बीजोपचार कर पौधों के लिये मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढाया जाता है। सामान्यतया उपयोग में आने वाले जीवाणु कल्चर निम्न हैं -

राइजोबियम जीवाणु: इन जीवाणुओं का दलहनी फसलों के साथ प्राकृतिक सहजीवता का सम्बन्ध होता है। ये दलहनी फसलों की जडों में रहकर ग्रथिया बनाते है एवं नत्रजन स्थिर करते हैं। इनके द्वारा नत्रजन की स्थिर की गयी मात्रा जीवाणु विभेद, पौधों की किस्में, मृदा गुणों, वातावरण, सस्य क्रियाओं आदि पर निर्भर करती है। राइजोबियम - दलहन सहजीवता से 100-200 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टर प्रतिवर्ष होती है।

ऐजोटोबेक्टर जीवाणु: ये जीवाणु गैर दलहनी फसलों जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, आदि के लिये उपयुक्त है। ये 20-30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेकटर तक स्थिर कर सकते है।

फास्फोरस विलेयकारी जीवाणु: ये जीवाणु मृदा में उपस्थित अविलेय, स्थिर तथा अप्राप्त फास्फोरस की विलेयता को बढ़ाकर उसे पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होते है। इसका उपयोग लगभग सभी फसलों में हो सकता है। अलग-अलग दलहनी फसलों की जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु की अलग-अलग प्रजाति होती है, इसलिये अलग-अलग जीवाणु या कल्चर की जरूरत पड़ती है।



बिजोउपचार

रविवार, 20 दिसंबर 2015


लहसुन एक महत्त्वपूर्ण व पौष्टिक कंदीय सब्जी है। इस का प्रयोग आमतौर पर मसाले के रूप में कियाजाता है। लहसुन दूसरी कंदीय सब्जियों के मुकाबले अधिक पौष्टिक गुणों वाली सब्जी है। यह पेट के रोग, आँखों की जलन, कण के दर्द और गले की खराश वगैरह के इलाज में कारगर होता है। हरियाणा की जलवायु लहसुन की खेती हेतु अच्छी है।
उन्नत किस्में जी 1
– इस किस्म के लहसुन की गांठे सफेद, सुगठित व मध्यम के आकार की होती हैं। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160 – 180 दिनों में पक कर तैयार होती है। इस की पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति एकड़ है।
एजी 17
- यह किस्म हरियाणा के लिए अधिक माकूल है। इस की गांठे सफेद व सुगठित होती है। गांठ का वजन 25-30 ग्राम होता है। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160-170 दिनों में पक कर तैयार होती है। पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
मिट्टी और जलवायु
वैसे लहसुन की खेती कई किस्म की जमीन में की जा सकती है, फिर भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस में जैविक पदार्थों की मात्रा अधिकं हो तथा जिस का पीएच मान 6 से 7 के बीच हो, इस के लिए सब से अच्छी हैं। लहसुन की अधिक उपज और गुणवत्ता  के लिए मध्यम ठंडी जलवायु अच्छी होती है।
खेती की तैयारी
खेत में 2 या 3 गहरी जुताई करें इस के बाद खेत को समतल कर के क्यारियाँ व सिंचाई की नालियाँ बना लें।
बिजाई का समय
लहसुन की बिजाई का सही समय सितंबर के आखिरी हफ्ते से अक्टूबर तक होता है।
बीज की मात्रा
लहसुन की अधिक उपज के लिए डेढ़ से 2 क्विंटल स्वस्थ कलियाँ प्रति एकड़ लगती हैं। कलियों का व्यास 8-10 मिली मीटर होना चाहिए।
बिजाई की विधि
बिजाई के लिए क्यारियों में कतारों दूरी 15 सेंटीमीटर व कतारों में कलियों का नुकीला भाग ऊपर की ओर होना चाहिए और बिजाई के बाद कलियों को 2 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की तह से ढक दें।
खाद व उर्वरक
खेत की तैयारी के समय 20 टन गोबर की सड़ी हुई खाद देने के अलावा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश रोपाई से पहले आखिरी जुताई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएँ। 20 किलोग्राम नाइट्रोजन बिजाई के 30-40 दिनों के बाद दें।
सिंचाई
लहसुन की गांठों के अच्छे विकास के लिए सर्दियों में 10-15 दिनों के अंतर पर और गर्मियों में 5-7 दिनों के अंतर पर सिंचाई होनी चाहिए।
अन्य कृषि क्रियाएँ व खरपतवार नियंत्रण
लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। लिहाजा खरपतवार की रोकथाम हेतु 2-3 बार खुरपी से उथली निराई गुड़ाई करें। इस के अलावा फ्लूक्लोरालिन 400-500 ग्राम (बासालिन 45 फीसदी, 0.9-1.1 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई से पहले छिड़काव करें या पेंडीमैथालीन 400-500 ग्राम (स्टोम्प 30 फीसदी, 1.3-1.7 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर बिजाई के 8-10 दिनों बाद जब पौधे सुव्यवस्थित हो जाएँ और खरपतवार निकलने लगे, तब प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।
गांठो की खुदाई
फसल पकने के समय जमीन में अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए, वर्ना पत्तियाँ फिर से बढ़ने लगती हैं और कलियाँ का अंकुरण हो जाता है। इस से इस का भंडारण प्रभावित हो सकता है।
पौधों की पत्तियों में पीलापन आने व सूखना शुरू होने पर सिंचाई बंद कर दें। इस के कुछ दिनों बाद लहसुन की खुदाई करें। फिर गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखाने के बाद पत्तियों को 2-3 सेंटीमीटर छोड़ कर काट दें या 25-30 गांठों की पत्तियों को बांध कर गूछियों बना लें।
भंडारण
लहसुन का भंडारण गूच्छीयों के रूप में या टाट की बोरियों में या लकड़ी की पेटियों में रख कर सकते हैं। भंडारण कक्ष सूखा व हवादार होना चाहिए। शीतगृह में इस का भंडारण 0 से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान व 65 से 75 फीसदी आर्द्रता पर 3-4 महीने तक कर सकते हैं।
पैदावार
इस की औसतन उपज 4-8 टन प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है।
बीमारियाँ व लक्षण
आमतौर पर लहसुन की फसल में बैगनी धब्बा का प्रकोप हो जाता है। इस के असर से पत्तियों परजामुनी या गहरे भूरे धब्बे बनने लगते हैं। इन धब्बों के ज्यादा फैलाव से पत्तियाँ नीचे गिरने लगती हैं। इस बीमारी का असर ज्यादा तापमान और ज्यादा आर्द्रता में बढ़ता जाता है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए इंडोफिल एम् 45 या कॉपर अक्सिक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ले कर 200-500 लीटर पानी में घोल कर और किसी चपकने वाले पदार्थ (सैलवेट 99, 10 ग्राम, ट्रीटान 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर ) के साथ मिला कर 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़कें।

दूध उत्पादन

होम (घर) / कृषि / पशुपालन / दुग्ध उत्पादन (डेयरी)
शेयर
दुग्ध उत्पादन (डेयरी)
दुग्ध उत्पादन (डेयरी)- इस भाग में मवेशी की नस्लों, उपलब्धता, रोग प्रबंधन, चारा प्रबंधन, बछड़ा प्रबंधन, डेयरी आदि से संबंधित मशीनरी के चयन सहित डेयरी के वैज्ञानिक प्रबंधन की जानकारी को प्रस्तुत किया गया है।
बछड़े की देखभाल – इस भाग में बछड़े की देखभाल से सम्बंधित जानकारी उपलब्ध है।
पशुओं में बांझपन - कारण और उपचार – इस भाग में पशुओं में बांझपन के कारण और उसके उपचार के विषय में जानकारी उपलब्ध है।
मवेशियों के लिए आवास स्थान आवश्यकताएँ – इस भाग में मवेशियों के लिए आवास स्थान की आवश्यकताओं के विषय में विस्तृत जानकारी उप्ताब्ध है।
मवेशियों में होनेवाली बीमारी व उसका उपचार – इस भाग में मवेशियों में होनेवाली बीमारी एवं उनके उपचार के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।
मवेशियों की नस्ल व उनका चुनाव – इस भाग में मवेशियों के नस्ल एवं उनके चुनाव से सम्बंधित जानकारी है।
एजोलाः मवेशियों के भोजन के रूप में – इस भाग में एजोला के विषय में जानकारी उपलब्ध है जो मवेशियों के भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है।
पशु प्रजनन तालिका – इस भाग में पशु प्रजनन तालिका का वर्णन किया गया है।
पशुओं के रासायनिक उपचार के प्रमुख सिद्धांत – इस भाग में पशुओं के रासायनिक उपचार के प्रमुख सिद्धांतों का वर्णन है।
दुधारू पशुओं के लिए टीकाकरण सारणी – इस भाग में दुधारू पशुओं के लिए टीकाकरण सारणी प्रस्तुत है।
पशुओं को होनेवाली बीमारी व उससे बचाव – इस भाग में पशुओं में होनेवाली बीमारी एवं उनसे बचाव का वर्णन है।
मक्का की खेती

मक्का खरीफ ऋतु की फसल है, परन्तु जहां सिचाई के साधन हैं वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप मे ली जा सकती है। मक्का कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत है। यह एक बहपयोगी फसल है व मनुष्य के साथ- साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव भी है तथा औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। चपाती के रूप मे, भुट्टे सेंककर, मधु मक्का को उबालकर कॉर्नफलेक्स पॉपकार्न लइया के रूप मे आदि के साथ-साथ अब मक्का का उपयोग कार्ड आइल, बायोफयूल के लिए भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का उपयोग मुर्गी एवं पशु आहार के रूप मे किया जाता है। साथ ही साथ इससे पौष्टिक रूचिकर चारा प्राप्त होता है। भुट्टे काटने के बाद बची हुई कडवी पशुओं को चारे के रूप मे खिलाते हैं। औद्योगिक दृष्टि से मक्का मे प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट पेन्ट्स स्याही लोशन स्टार्च कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने लगा है। बेबीकार्न मक्का से प्राप्त होने वाले बिना परागित भुट्टों को ही कहा जाता है। बेबीकार्न का पौष्टिक मूल्य अन्य सब्जियों से अधिक है।

जलवायु एवं भूमि:-

मक्का उष्ण एवं आर्द जलवायु की फसल है। इसके लिए ऐसी भूमि जहां पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी :-

खेत की तैयारी के लिए पहला पानी गिरने के बाद जून माह मे हेरो करने के बाद पाटा चला देना चाहिए। यदि गोबर के खाद का प्रयोग करना हो तो पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय जमीन मे मिला दें। रबी के मौसम मे कल्टीवेटर से दो बार जुताई करने के उपरांत दो बार हैरो करना चाहिए।

बुवाई का समय :-

1. खरीफ :- जून से जुलाई तक।

2. रबी :- अक्टूबर से नवम्बर तक।

3. जायद :- फरवरी से मार्च तक।

किस्म :-

क्र.

संकर किस्म



अवधि (दिन मे)



उत्पादन (क्ंवि/हे.)



1



गंगा-5



100-105



50-80



2



डेक्कन-101



105-115



60-65



3



गंगा सफेद-2



105-110



50-55



4



गंगा-11



100-105



60-70



5



डेक्कन-103



110-115



60-65



 कम्पोजिट जातियां :-

सामान्य अवधि वाली- चंदन मक्का-1
जल्दी पकने वाली- चंदन मक्का-3
अत्यंत जल्दी पकने वाली- चंदन सफेद मक्का-2
बीज की मात्रा :-

संकर जातियां :- 12 से 15 किलो/हे.
कम्पोजिट जातियां :- 15 से 20 किलो/हे.
हरे चारे के लिए :- 40 से 45 किलो/हे.
     (छोटे या बड़े दानो के अनुसार भी बीज की मात्रा कम या अधिक होती है।)

बीजोपचार :-

बीज को बोने से पूर्व किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्रा./कि. बीज का दर से उपचारीत करके बोना चाहिए। एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें।

पौध अंतरण :-

शीघ्र पकने वाली:- कतार से कतार-60 से.मी. पौधे से पौधे-20 से.मी.
मध्यम/देरी से पकने वाली :- कतार से कतार-75 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
हरे चारे के लिए :- कतार से कतार:- 40 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
बुवाई का तरीका :-

वर्षा प्रारंभ होने पर मक्का बोना चाहिए। सिंचाई का साधन हो तो 10 से 15 दिन पूर्व ही बोनी करनी चाहिये इससे पैदावार मे वृध्दि होती है। बीज की बुवाई मेंड़ के किनारे व उपर 3-5 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बुवाई किसी भी विधी से की जाय परन्तु खेत मे पौधों की संख्या 55-80 हजार/हेक्टेयर रखना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा :-

शीघ्र पकने वाली :- 80 : 50 : 30 (N:P:K)
मध्यम पकने वाली :- 120 : 60 : 40 (N:P:K)
देरी से पकने वाली :- 120 : 75 : 50 (N:P:K)
 भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए तथा भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 कि.ग्रा./हे जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक देने की विधी :-

1. नत्रजन :-

1/3 मात्रा बुवाई के समय, (आधार खाद के रूप मे)
1/3 मात्रा लगभग एक माह बाद, (साइड ड्रेसिंग के रूप में)
1/3 मात्रा नरपुष्प (मंझरी) आने से पहले
2. फास्फोरस व पोटाश :-

इनकी पुरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। चुकी मिट्टी मे इनकी गतिशीलता कम होती है, अत: इनका निवेशन ऐसी जगह पर करना आवश्यक होता है जहां पौधो की जड़ें हो।

निंदाई-गुड़ाई :-

बोने के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का प्रयोग करना चाहिए। एट्राजीन का उपयोग हेतु अंकुरण पूर्व 600-800 ग्रा./एकड़ की दर से छिड़काव करें। इसके उपरांत लगभग 25-30 दिन बाद मिट्टी चढावें।

अन्तरवर्ती फसलें :-

मक्का के मुख्य फसल के बीच निम्नानुसार अन्तरवर्ती फसलें लीं जा सकती है :-

मक्का           :                उड़द, बरबटी, ग्वार


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सोयाबीन की खेती
CONTENTS
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
उन्नत प्रजातियां
बीज दर
बीजोपचार
कल्चर का उपयोग
बोनी का समय एवं तरीका
अंतरवर्तीय फसलें
समन्वित पोषण प्रबंधन
खरपतवार प्रबंधन
सिंचाई
पौध संरक्षण
रोग
फसल की कटाई एवं गहाई

भूमि का चुनाव एवं तैयारी

सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, हल्की व रेतीली भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिये अधिक उपयुक्त होती है। जिन खेतों में पानी रुकता हो, उनमें सोयाबीन न लें।
ग्रीष्मकालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवष्य करनी चाहिये। वर्षा प्रारम्भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत का तैयार कर लेना चाहिये। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थायें नष्ट होंगीं। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिये उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिये खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक सम्भव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सकें। यथा सम्भव मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) बनाकर सोयाबीन बोयें।
उन्नत प्रजातियां
प्रजाति
पकने की अवधि
औसत उपज (क्विंटल/हेक्टर)
प्रतिष्ठा 100-105 दिन 20-30
जे.एस. 335 95-100 दिन 25-30
पी.के. 1024 110-120 दिन 30-35
एम.ए.यू.एस. 47 85-90 दिन 20-25
एनआरसी 7
(अहिल्या-3) 100-105 दिन 25-30
एनआरसी 37 95-100 दिन 30-35
एम.ए.यू.एस.-81 93-96 दिन 22-30
एम.ए.यू.एस.-93 15 90-95 दिन 20-25बीज दर

छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़
मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़
बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़
बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोयें।
कल्चर का उपयोग


फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार के प्श्चात् बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिये एवं शीघ्र बोनी करना चाहिये। घ्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलाऐं।
बोनी का समय एवं तरीका
जून के अंतिम सप्ताह में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होना चाहिये। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात् बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) तथा 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये। 20 कतारों के बाद एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण के लिये खाली छोड़ देना चाहिये। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहरा बोयें।
अंतरवर्तीय फसलें

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के रुप में अरहर  सोयाबीन (2:4), ज्वार  सोयाबीन (2:2), मक्का  सोयाबीन (2:2), तिल  सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें उपयुक्त हैं।
समन्वित पोषण प्रबंधन

अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई बढ़ाई जा सकती है। यथा सम्भव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मिट्टियों में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन


फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को नश्ट करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति ए
उज्जैन। कम लागत, कम मेहनत और मुनाफा कई गुना। सुनने में भले अटपटा लगे लेकिन तुलसी की खेती करने वाले किसान इसकी हकीकत जानते हैं। तुलसी आमतौर पर घरों के आंगन में दिखाई देती है। तुलसी को घर के आंगन में लगाने की परंपरा उसके औषधीय गुणों के कारण है। यह गुण अब किसानों को भी मालामाल कर रहा है।
 
तुलसी की खेती करने वाले किसानों की मानें तो 10 बीघा जमीन में तीन महीने में 15 हजार रु. की लागत से तैयार तुलसी की खेती से तीन लाख रु. का मुनाफा हो रहा है। तुलसी ने उनके भाग्य बदल दिए हैं।

मालवांचल में सोयाबीन की विपुल खेती होती है लेकिन कुछ सालों से सोयाबीन किसानों को नुकसान में डाल रहा है। कृषि वैज्ञानिक किसानों को सोयाबीन छोड़ कर अन्य खेती अपनाने की सलाह दे रहे हैं। जिले के दो किसानों ने उनकी सलाह मानी और तुलसी की खेती शुरू की। पहली ही फसल ने उन किसानों को जो मुनाफा दिया, उसकी कल्पना तो उन्होंने कभी की ही नहीं थी। अब वे अन्य किसानों को भी अपने अनुभव बताकर तुलसी की खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।

भारी बारिश में सोयाबीन नष्ट, तुलसी को नुकसान नहीं 
खाचरौद तहसील के किसान अनोखीलाल पाटीदार ने 10 बीघा जमीन पर तुलसी की बुवाई की। भारी बारिश में सोयाबीन की फसल खेतों में जलभराव के कारण नष्ट हो गई लेकिन तुलसी के पौधों को कोई नुकसान नहीं हुआ। औषधीय पौधा होने से उस पर कीटों का प्रभाव नहीं पड़ता। पाटीदार ने बताया उन्होंने तुलसी के पौधे खरीफ के पिछले सीजन में भी लगाए थे। 10 बीघा जमीन में 10 किलो बीज की बुवाई की थी।
 
10 किलो बीज की कीमत 3 हजार रुपए है। 10 हजार रुपए खाद एवं दो हजार रु. अन्य खर्च आया। सिंचाई भी सिर्फ एक बार करना पड़ती है। पिछले सीजन में करीब 8 क्विंटल उत्पादन हुआ था और औसत तीन लाख रुपए की कमाई हुई। तुलसी बीज नीमच मंडी में 30 से 40 हजार रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिकते हैं।

जिले में औषधीय खेती 
अश्वगंधा 102 हैक्टेयर
तुलसी 30 हैक्टेयर
सफेद मूसली 15 हैक्टेयर
इसबगोल 20 हैक्टेयर
 
तुलसी : कई बीमारियों का इलाज 

तुलसी एक प्रकार की औषधि है।
नियमित सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
शहद के साथ सेवन से किडनी की पथरी का 6 माह में इलाज
कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करती है। पत्तियों के रस का नियमित सेवन करने से हार्ट संबंधित बीमारियों में लाभ।
स्वाइन फ्लू में इसका काढ़ा पीने से लाभ।
(आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी एवं कुपोषण के नोडल अधिकारी डॉ एसएन पांडे ने जैसा बताया।)
 
इनका कहना 
जिले में 157 हेक्टेयर भूमि पर औषधीय खेती की जा रही है। इसका रकबा बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। इस खेती से होने वाला ज्यादा मुनाफा किसानों को प्रोत्साहित कर रहा है। नरेेंद्र सिंह तोमर, उपसंचालक उद्यानिकी।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

केंचुआ खाद

केंचुआ खाद ('रोटरी स्क्रीन विधि' से निर्मित)
केंचुआ खाद या वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost) पोषण पदार्थों से भरपूर एक उत्तम जैव उर्वरक है। यह केंचुआ आदि कीड़ों के द्वारा वनस्पतियों एवं भोजन के कचरे आदि को विघटित करके बनाई जाती है।

वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3% नाइट्रोजन, 1.5 से 2% सल्फर तथा 1.5 से 2% पोटाश पाया जाता है।

केंचुआ खाद की विशेषताएँ : इस खाद में बदबू नहीं होती है, तथा मक्खी, मच्छर भी नहीं बढ़ते है जिससे वातावरण स्वस्थ रहता है। इससे सूक्ष्म पोषित तत्वों के साथ-साथ नाइट्रोजन 2 से 3 प्रतिशत, फास्फोरस 1 से 2 प्रतिशत, पोटाश 1 से 2 प्रतिशत मिलता है।

इस खाद को तैयार करने में प्रक्रिया स्थापित हो जाने के बाद एक से डेढ़ माह का समय लगता है।
प्रत्येक माह एक टन खाद प्राप्त करने हेतु 100 वर्गफुट आकार की नर्सरी बेड पर्याप्त होती है।
केचुँआ खाद की केवल 2 टन मात्रा प्रति हैक्टेयर आवश्यक है।
परिचय

खाद्य कचरे को वर्मीडाइजेस्टर में डालकर निर्मित वर्मीकम्पोस्ट (केंचुआ खाद)
केंचुआ कृषकों का मित्र एवं 'भूमि की आंत' कहा जाता है। यह सेन्द्रिय पदार्थ (ऑर्गैनिक पदार्थ), ह्यूमस व मिट्टी को एकसार करके जमीन के अन्दर अन्य परतों में फैलाता है इससे जमीन पोली होती है व हवा का आवागमन बढ़ जाता है, तथा जलधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है। केचुँए के पेट में जो रासायनिक क्रिया व सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया होती है, उससे भूमि में पाये जाने वाले नत्रजन, स्फुर (फॉस्फोरस), पोटाश, कैलशियम व अन्य सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है। ऐसा पाया गया है कि मिट्टी में नत्रजन 7 गुना, फास्फोरस 11 गुना और पोटाश 14 गुना बढ़ता है।

केचुँए अकेले जमीन को सुधारने एवं उत्पादकता वृद्धि में सहायक नहीं होते बल्कि इनके साथ सूक्ष्म जीवाणु, सेन्द्रित पदार्थ, ह्यूमस इनका कार्य भी महत्वपूर्ण है।

केचुँए सेन्द्रिय पदार्थ, एवं मिट्टी खाने वाले जीव है जो सेप्रोफेगस वर्ग में आते है। इस वर्ग में दो प्रकार के केचुँए होते हैं :-

(1) डेट्रीटीव्होरस - डेट्रीटीव्होरस जमीन के ऊपरी सतह पर पाये जाते है। ये लाल चाकलेटी रंग, चपटी पूँछ के होते है इनका मुख्य उपयोग खाद बनाने में होता है। ये ह्यूमस फारमर केचुँए कहे जाते है।
(2) जीओफेगस - जीओ फेगस केचुँए जमीन के अन्दर पाये जाते है । ये रंगहीन सुस्त रहते हैं। ये ह्यूमस एवं मिट्टी का मिश्रण बनाकर जमीन पोली करते है।
केंचुआ खाद तैयार करने की विधि
जिस कचरे से खाद तैयार की जाना है उसमे से कांच, पत्थर, धातु के टुकड़े अलग करना आवश्यक हैं।
केचुँआ को आधा अपघटित सेन्द्रित पदार्थ खाने को दिया जाता है।
भूमि के ऊपर नर्सरी बेड तैयार करें, बेड को लकड़ी से हल्के से पीटकर पक्का व समतल बना लें।
इस तह पर 6-7 से0मी0 (2-3 इंच) मोटी बालू रेत या बजरी की तह बिछायें।
बालू रेत की इस तह पर 6 इंच मोटी दोमट मिट्टी की तह बिछायें। दोमट मिट्टी न मिलने पर काली मिट्टी में रॉक पाऊडर पत्थर की खदान का बारीक चूरा मिलाकर बिछायें।
इस पर आसानी से अपघटित हो सकने वाले सेन्द्रिय पदार्थ की (नारीयल की बूछ, गन्ने के पत्ते, ज्वार के डंठल एवं अन्य) दो इंच मोटी सतह बनाई जावे।
इसके उपर 2-3 इंच पकी हुई गोबर खाद डाली जावे।
केचुँओं को डालने के उपरान्त इसके ऊपर गोबर, पत्ती आदि की 6 से 8 इंच की सतह बनाई जावे । अब इसे मोटी टाट् पट्टी से ढांक दिया जावे।
झारे से टाट पट्टी पर आवश्यकतानुसार प्रतिदिन पानी छिड़कते रहे, ताकि 45 से 50 प्रतिशत नमी बनी रहे। अधिक नमी/गीलापन रहने से हवा अवरूद्ध हो जावेगी और सूक्ष्म जीवाणु तथा केचुएं कार्य नहीं कर पायेगे और केचुएं मर भी सकते है।
नर्सरी बेड का तापमान 25 से 30 डिग्री सेन्टीग्रेड होना चाहिए।
नर्सरी बेड में गोबर की खाद कड़क हो गयी हो या ढेले बन गये हो तो इसे हाथ से तोड़ते रहना चाहिये, सप्ताह में एक बार नर्सरी बेड का कचरा ऊपर नीचे करना चाहिये।
30 दिन बाद छोटे छोटे केंचुए दिखना शुरू हो जावेंगे।
31 वें दिन इस बेड पर कूड़े-कचरे की 2 इंच मोटी तह बिछायें और उसे नम करें।
इसके बाद हर सप्ताह दो बार कूडे-कचरे की तह पर तह बिछाएं। बॉयोमास की तह पर पानी छिड़क कर नम करते रहें ।
3-4 तह बिछाने के 2-3 दिन बाद उसे हल्के से उपर नीचे कर देवें और नमी बनाए रखें।
42 दिन बाद पानी छिड़कना बंद कर दें।
इस पद्धति से डेढ़ माह में खाद तैयार हो जाता है यह चाय के पाउडर जैसा दिखता है तथा इसमें मिट्टी के समान सोंधी गंध होती है।
खाद निकालने तथा खाद के छोटे-छोटे ढेर बना देवे। जिससे केचुँए, खाद की


हरी खाद के लिये सोयाबीन
कृषि में हरी खाद (green manure) उस सहायक फसल को कहते हैं जिसकी खेती मुख्यत: भूमि में पोषक तत्त्वों को बढ़ाने तथा उसमें जैविक पदाथों की पूर्ति करने के उद्देश्य से की जाती है। प्राय: इस तरह की फसल को इसके हरी स्थिति में ही हल चलाकर मिट्टी में मिला दिया जाता है। हरी खाद से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है और भूमि की रक्षा होती है।

मृदा के लगातार दोहन से उसमें उपस्थित पौधे की बढ़वार के लिये आवश्यक तत्त्व नष्ट होते जा रहे हैं। इनकी क्षतिपूर्ति हेतु व मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिये हरी खाद एक उत्तम विकल्प है। बिना गले-सड़े हरे पौधे (दलहनी एवं अन्य फसलों अथवा उनके भाग) को जब मृदा की नत्रजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिये खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं।

हरी खाद के उपयोग से न सिर्फ नत्रजन भूमि में उपलब्ध होता है बल्कि मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा में भी सुधार होता है। वातावरण तथा भूमि प्रदूषण की समस्या को समाप्त किया जा सकता है लागत घटने से किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है, भूमि में सूक्ष्म तत्वों की आपूर्ति होती है साथ ही मृदा की उर्वरा शक्ति भी बेहतर हो जाती है।

हरी खाद के लाभ
1. हरी खाद केवल नत्राजन व कार्बनिक पदार्थों का ही साध्न नहीं है बल्कि इससे मिट्टी में कई अन्य आवश्यक पोषक तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

2. हरी खाद के प्रयोग में मृदा भुरभुरी, वायु संचार में अच्छी, जलधरण क्षमता में वृद्धि, अम्लीयता/क्षारीयता में सुधार एवं मृदा क्षरण में भी कमी होती है।

3. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में सूक्ष्मजीवों की संख्या एवं क्रियाशीलता बढ़ती है तथा मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता भी बढ़ती है।

4. हरी खाद में मृदाजनित रोगों में भी कमी आती है।

5. इसके प्रयोग से रसायनिक उर्वरकों में कमी करके भी टिकाऊ खेती कर सकते हैं।

हरी खाद प्रयोग में कठिनाईयाँ
(क) फलीदार फसल में पानी की काफी मात्रा होती है परन्तु अन्य फसलों में रेशा काफी होने की वजह से मुख्य फसल (जो हरी खाद के बाद लगानी हो) में नत्रजन की मात्रा काफी कम हो जाती है।
(ख) चूँकि हरी खाद वाली फसल के गलने के लिए नमी की आवश्यकता पड़ती है तथा कई बार हरी खाद के पौधे नमी जमीन से लेते हैं जिसके कारण अगली फसल में सूखे वाली परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं।
हरी खाद के व्यावहारिक प्रयोग
(क) उन क्षेत्रों में जहाँ नत्राजन तत्व की काफी कमी हो।
(ख) जिस क्षेत्रों की मिट्टी में नमी की कमी कम हो।
(ग) हरी खाद का प्रयोग कम वर्षा वाले क्षेत्रा में न करें । इन क्षेत्रों में नमी का संरक्षण मुख्य फसल के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसी अवस्था में नमी के संरक्षण के अन्य तरीके अपनायें।
(घ) जिनके तने तथा जड़ें काफी मात्रा में पानी प्राप्त कर सकें।
(ङ) ये वे फसलें होनी चाहिए जो जल्दी ही जमीन की सतह को ढक लें। चाहे जमीन रेतीली या भारी या जिसकी बनावट ठीक न हो में ठीक प्रकार बढ़ सकें।
(च) जब ऊपर बतायी बातें फसल में विद्यमान हों तो फलीदार फसल का प्रयोग अच्छा होता है क्योंकि उन फसलों से नत्राजन भी प्राप्त हो जाती है
हरी खाद वाली फसलें
हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार आदि फसलों का उपयोग किया जा सकता है। इन फसलों की वृद्धि शीघ्र, कम समय में हो जाती है, पत्तियाँ बड़ी वजनदार एवं बहुत संख्या में रहती है, एवं इनकी उर्वरक तथा जल की आवश्यकता कम होती है, जिससे कम लागत में अधिक कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो जाता है। दलहनी फसलों में जड़ों में नाइट्रोजन को वातावरण से मृदा में स्थिर करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं।

अधिक वर्षा वाले स्थानों में जहाँ जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सनई का उपयोग करें, ढैंचा को सूखे की दशा वाले स्थानों में तथा समस्याग्रस्त भूमि में जैसे क्षारीय दशा में उपयोग करें। ग्वार को कम वर्षा वाले स्थानों में रेतीली, कम उपजाऊ भूमि में लगायें। लोबिया को अच्छे जल निकास वाली क्षारीय मृदा में तथा मूंग, उड़द को खरीफ या ग्रीष्म काल में ऐसे भूमि में ले जहाँ जल भराव न होता हो। इससे इनकी फलियों की अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है तथा शेष पौधा हरी खाद के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है ।

आदर्श हरी खाद फसल के गुण
हरी खाद के मुख्य चार गुण हैं-

(क) उगाने में न्यूनतम खर्च,
(ख) न्यूनतम सिंचाई, कम से कम पादप संरक्षण,
(ग) खरपतवारों को दबाते हुए जल्दी बढ़त प्राप्त करेंतथा विपरीत परिस्थितियों में उगने की क्षमता हो।
(घ) कम समय में अध्कि मात्रा में वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थिरीकरण करती हो।
हरी खाद की फसल उगाने के लिये कृषि विधियाँ एवं मृदा पलटने की अवस्था
कम उपजाऊ समस्याग्रस्त मृदा में इन फसल

डेयरी उद्योग: सरकारी सहायता से शुरू करें यह उद्यम
अशोक वशिष्ठ
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डेयरी पालन उद्योग में दुधारू पशुओं को पाला जाता है। इनमें गाय, भैंस व बकरी उल्लेखनीय हैं। भैंस और गाय की अपेक्षा बकरी का दूध मात्रा में कम होता है। भैंस और विदेशी नस्ल की गायें ज्यादा मात्रा में दूध देती हैं। भारत में 32 तरह की गायें पाई जाती हैं। गायों की प्रजातियों को तीन रूप में जाना जाता है-ड्रोड ब्रीड, डेयरी ब्रीड व डय़ूअल परपज ब्रीड। ड्रोड ब्रीड ताकतवर होती है, इन्हें बैलगाड़ी या हल में भी जोता है, जबकि डेयरी ब्रीड को सिर्फ दूध के लिए रखा जाता है। डय़ूअल ब्रीड घरों में पाले जाने वाले दुधारू पशु होते हैं, जिन्हें किसान अपनी जीविका चलाने के लिए रखते हैं। डेयरी में गाय पालने की मुख्य रूप से तीन प्रजातियां हैं-रेड सिन्धी साहीवाल व गिर, जो सबसे ज्यादा दूध देती हैं (अक्सर डेयरी पालकों को इस नस्ल के बारे में कम जानकारी होती है)। इसके अलावा जरसी, ब्राउन स्विर हॉलस्टन और अयरशायर भी प्रमुख हैं। जरसी, मूलत: अमेरिका में पाई जाती है, हॉलस्टन हॉलैंड में और ब्राउन स्विट्जरलैंड में पाई जाती है।
भारत में 55 प्रतिशत दूध अर्थात 20 मिलियन टन दूध भैंस से मिलता है। भारत में तीन तरह की भैंसें मिलती हैं, जिनमें मुरहा, मेहसना और सुरति प्रमुख हैं। मुरहा भैंसों की प्रमुख ब्रीड मानी जाती है। यह ज्यादातर हरियाणा और पंजाब में पाई जाती है। राज्य सरकारों ने भी इस नस्ल की भैंसों की विस्तृत जानकारी की हैंड बुक एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल इंडियन सेंटर (भारत सरकार) ने जारी की है। मेहसना मिक्सब्रीड है। यह गुजरात तथा महाराष्ट्र में पाई जाती है। इस नस्ल की भैंस 1200 से 3500 लीटर दूध एक महीने में देती हैं। सुरति इनमें छोटी नस्ल की भैंस है। यह खड़े सींगों वाली भैंस है। यह नस्ल भी गुजरात में पाई जाती है। यह एक महीने में 1600 से 1800 लीटर दूध देती है।
डेयरी उद्योग के लिए शैक्षिक योग्यता
गाय व भैंस डेयरी पालन उद्योग में प्रशिक्षण प्राप्ति के लिए कोई निश्चित शैक्षिक योग्यता या आयु सीमा निधारित नहीं है। कोई भी युवा, जो डेयरी पालन के क्षेत्र में स्वरोजगार अपनाना चाहता है, वह एडमिशन ले सकता है, लेकिन पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार का 60 प्रतिशत अंकों के साथ बीएससी होना जरूरी है।
परामर्श
डेयरी पालन के लिए यह जरूरी है कि गाय व भैंसों को खुली जगह में रखा जाए, लेकिन जाड़ों में बचाव के लिए गाय व भैंसों की लंबाई व चौड़ाई के अनुपात के हिसाब से उनके लिए घर बना हो। कमरों में हवा का आवागमन होता रहे।
डेयरी पालन उद्योग कैसे शुरू करें
यह उद्योग 5 से 10 गाय या भैंस के साथ शुरू किया जा सकता है।
आहार
गाय या भैंसों को एक निश्चित समय पर भोजन दिया जाना जरूरी है। रोजाना खली में मिला चारा दो वक्त दिया जाना चाहिए। इसके अलावा बरसीम, ज्वार व बाजरे का चारा दिया जाना चाहिए। दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए बिनौले का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। डेयरी मालिक यह भी ध्यान रखें कि आहार बारीक, साफ-सुथरा हो, ताकि जानवर अपने आहार को चाव से खा सके। इन्हें 32 लीटर पानी अवश्य पिलाया जाए। इनके स्वास्थ्य के लिए इतना पानी जरूरी है।
बचाव
डेयरी पालकों को चाहिए कि वे दर्द निवारक दवाओं को अपने पास रखें, ताकि जरूरत पर उनका उपयोग किया जा सके। गाय व भैंसों को अलग-अलग खूंटों पर बांधना चाहिए, क्योंकि तंग जगह में पशुओं को बीमारी होने का डर रहता है। चिकनपॉक्स, पैर व मुंह की बीमारी आम बात है, इसलिए समय-समय पर पशु-चिकित्सकों से भी सलाह लेते रहना चाहिए।
ऋण-सहायता
सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाएं डेयरी पालन उद्योग के लिए 10 लाख रुपए तक की धनराशि उपलब्ध करवाती है। इसके लिए डेयरी पालक को तमाम कागज जैसे एनओसी, एसडीएम प्रमाणपत्र, बिजली का बिल, आधार कार्ड, डेयरी का नवीनतम फोटो आदि जमा करवाने होते हैं। डेयरी की वेरीफिकेशन के बाद अगर ऑफिसर संतुष्ट होंगे तो डेयरी पालक को डेरी व पशुओं की संख्या के हिसाब से 5 से 10 लाख रुपए तक की राशि मुहैया करवाई जाती है। इसके कुछ दिनों बाद यह राशि किस्तों में जमा करवानी होती है। किस्तों का नियमित भुगतान करने पर कुछ किस्तें माफ कर दी जाती हैं।
प्रशिक्षण संस्थान
नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिट्यूट
(एन डी आर आई) करनाल, हरियाणा
नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिटय़ूूट
आणंद, (गुजरात)
बैंक डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन, पुणे, महाराष्ट्र
सोयाबीनकी फसल में पीलिया और विषाणु यानी मोजेक रोग से बचाव के लिए कृषि विभाग ने किसानों को उपचार बताए हैं। उपनिदेशक कृषि विस्तार कैलाश मीणा ने बताया कि सोयाबीन की फसल में इन दिनों आंशिक रूप से पीलिया और मोजेक रोग दिखाई दे रहा है। इसके तहत पीलिया रोग से बचाव के लिए फसल में जब भी पीलापन दिखाई दे उसमें 1मिलीलीटर पानी में 1 मिलीलीटर गंधक के तेजाब और 0.5 फीसदी फैसर सल्फेट का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा मोजेक रोग से बचाव के लिए पौधों को उखाडकर नष्ट करें। इसमें उदामिथोएट, मेटासिस्टोक्स पांच सौ से छह सौ दवा को पांच सौ से छह सौ लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें। उन्होंने बताया कि मोजेक रोग 
      नमस्कार मित्रो मे हु मंगलेश पाटीदार
मे आपके लिए लेकर अय हउ की लहसुन की वैज्ञानिक खेती केसे करते है

परिचय
लहसुन एक महत्त्वपूर्ण व पौष्टिक कंदीय सब्जी है। इस का प्रयोग आमतौर पर मसाले के रूप में कियाजाता है। लहसुन दूसरी कंदीय सब्जियों के मुकाबले अधिक पौष्टिक गुणों वाली सब्जी है। यह पेट के रोग, आँखों की जलन, कण के दर्द और गले की खराश वगैरह के इलाज में कारगर होता है। हरियाणा की जलवायु लहसुन की खेती हेतु अच्छी है।
उन्नत किस्में जी 1
– इस किस्म के लहसुन की गांठे सफेद, सुगठित व मध्यम के आकार की होती हैं। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160 – 180 दिनों में पक कर तैयार होती है। इस की पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति एकड़ है।
एजी 17
- यह किस्म हरियाणा के लिए अधिक माकूल है। इस की गांठे सफेद व सुगठित होती है। गांठ का वजन 25-30 ग्राम होता है। हर गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बिजाई के 160-170 दिनों में पक कर तैयार होती है। पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
मिट्टी और जलवायु
वैसे लहसुन की खेती कई किस्म की जमीन में की जा सकती है, फिर भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस में जैविक पदार्थों की मात्रा अधिकं हो तथा जिस का पीएच मान 6 से 7 के बीच हो, इस के लिए सब से अच्छी हैं। लहसुन की अधिक उपज और गुणवत्ता के लिए मध्यम ठंडी जलवायु अच्छी होती है।
खेती की तैयारी
खेत में 2 या 3 गहरी जुताई करें इस के बाद खेत को समतल कर के क्यारियाँ व सिंचाई की नालियाँ बना लें।
बिजाई का समय
लहसुन की बिजाई का सही समय सितंबर के आखिरी हफ्ते से अक्टूबर तक होता है।
बीज की मात्रा
लहसुन की अधिक उपज के लिए डेढ़ से 2 क्विंटल स्वस्थ कलियाँ प्रति एकड़ लगती हैं। कलियों का व्यास 8-10 मिली मीटर होना चाहिए।
बिजाई की विधि
बिजाई के लिए क्यारियों में कतारों दूरी 15 सेंटीमीटर व कतारों में कलियों का नुकीला भाग ऊपर की ओर होना चाहिए और बिजाई के बाद कलियों को 2 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की तह से ढक दें।
खाद व उर्वरक
खेत की तैयारी के समय 20 टन गोबर की सड़ी हुई खाद देने के अलावा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश रोपाई से पहले आखिरी जुताई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएँ। 20 किलोग्राम नाइट्रोजन बिजाई के 30-40 दिनों के बाद दें।
सिंचाई
लहसुन की गांठों के अच्छे विकास के लिए सर्दियों में 10-15 दिनों के अंतर पर और गर्मियों में 5-7 दिनों के अंतर पर सिंचाई होनी चाहिए।
अन्य कृषि क्रियाएँ व खरपतवार नियंत्रण
लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। लिहाजा खरपतवार की रोकथाम हेतु 2-3 बार खुरपी से उथली निराई गुड़ाई करें। इस के अलावा फ्लूक्लोरालिन 400-500 ग्राम (बासालिन 45 फीसदी, 0.9-1.1 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई से पहले छिड़काव करें या पेंडीमैथालीन 400-500 ग्राम (स्टोम्प 30 फीसदी, 1.3-1.7 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर बिजाई के 8-10 दिनों बाद जब पौधे सुव्यवस्थित हो जाएँ और खरपतवार निकलने लगे, तब प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।
गांठो की खुदाई
फसल पकने के समय जमीन में अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए, वर्ना पत्तियाँ फिर से बढ़ने लगती हैं और कलियाँ का अंकुरण हो जाता है। इस से इस का भंडारण प्रभावित हो सकता है।
पौधों की पत्तियों में पीलापन आने व सूखना शुरू होने पर सिंचाई बंद कर दें। इस के कुछ दिनों बाद लहसुन की खुदाई करें। फिर गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखाने के बाद पत्तियों को 2-3 सेंटीमीटर छोड़ कर काट दें या 25-30 गांठों की पत्तियों को बांध कर गूछियों बना लें।
भंडारण
लहसुन का भंडारण गूच्छीयों के रूप में या टाट की बोरियों में या लकड़ी की पेटियों में रख कर सकते हैं। भंडारण कक्ष सूखा व हवादार होना चाहिए। शीतगृह में इस का भंडारण 0 से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान व 65 से 75 फीसदी आर्द्रता पर 3-4 महीने तक कर सकते हैं।
पैदावार
इस की औसतन उपज 4-8 टन प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है।
बीमारियाँ व लक्षण
आमतौर पर लहसुन की फसल में बैगनी धब्बा का प्रकोप हो जाता है। इस के असर से पत्तियों परजामुनी या गहरे भूरे धब्बे बनने लगते हैं। इन धब्बों के ज्यादा फैलाव से पत्तियाँ नीचे गिरने लगती हैं। इस बीमारी का असर ज्यादा तापमान और ज्यादा आर्द्रता में बढ़ता जाता है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए इंडोफिल एम् 45 या कॉपर अक्सिक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ले कर 200-500 लीटर पानी में घोल कर और किसी चपकने वाले पदार्थ (सैलवेट 99, 10 ग्राम, ट्रीटान 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर ) के साथ मिला कर 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़कें।

स्ट्राबेरी शीतोष्ण जलवायु का पौधा है । भारत वर्ष में स्ट्राबेरी की खेती शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण दोनों भागों में की जाती है । हिमाचल में सबसे अधिक क्षेत्रफल यानि बड़े पैमाने पर खेती होती है । उ.प्र.में स्ट्राबेरी सहारनपुर , हरिद्वार, मुजफ्फरनगर, मेरठ , उधम सिंह नगर व देहरादून के पर्वतीय अंचलों में नैनीताल जिले में खप्रद , व ज्योलीकोट क्षेत्र तथा अल्मोड़ा जिले में प्रमुख रूप से भी की जा रही है । स्ट्राबेरी की आज कल काफी लोकप्रिय हो रही है । स्ट्राबेरी की खेती इसके लाल, गुलाबी , सुगन्धित व पौष्टिक फलों के लिए की जाती है साथ ही इसमें अनीमिया व क्लोरोसिस आदि बीमारियों की प्रतिरोधी क्षमता भी है इसे नियमित खाने से इन बीमारियों पर काबू पाया जा सकता है। स्ट्राबेरी का उपयोग जैम , जैली व आइसक्रीम में भी किया जाता है । इसके १०० ग्राम फल में ८७.८ पानी , ०.७ %प्रोटीन , ०.२ % वसा, ०.४ % खनिज लवण , १.१ % रेशा , १.८ % कार्बोहाईड्रेट , ०.०३ % कैल्शियम , ० .०३ % फास्फोरस , और १.८ % आयरन पाया जाता है । इसके अलावा इसमें ३० मी.ग्रा.निकोटिनीक एसिड , ५२मि.ली ग्राम विटामिन सी , और ०.०२ % कैलोरी उर्जा मिलती है । स्ट्राबेरी की भण्डारण क्षमता बहुत कम है अत: इसकी खेती करने से पूर्व तोड़ने के बाद शीघ्र , अतिशीघ्र बाजार व उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के साधन सुनिश्चित कर लेने चाहिए । चूँकि तुड़ाई के बाद फल को यदि अधिक समय तक रखा जाए तो वह ख़राब हो जाता है । स्ट्राबेरी की खेती उन क्षेत्रों के छोटे किसानों के लिए अत्यधिक लाभकारी है । जिन क्षेत्रों में परिवहन की सुविधा उपलब्ध है वास्तव में स्ट्राबेरी की खेती में यदि थोडा सा परिश्रम कर लिया जाए तो कम जमीन में भी ज्यादा लाभ लिया जा सकता है ।
जलवायु और मिटटी सम्बन्धी आवश्यकता :-
स्ट्राबेरी कि खेती समशीतोष्ण एवं शीतोष्ण जलवायु में समुद्र सतह से १८०० मीटर तक अच्छी प्रकार से कि जा सकती है जहाँ ठण्ड के मौसम में अधिक ठण्ड पड़ती है तथा फ़रवरी, मार्च में गर्मी आरम्भ हो जाती है परन्तु ग्रीष्म ऋतू में अधिक गर्मी न पड़ती हो ५-३५ सेंटी ग्रेड तक अब कुछ नई विकसित संकर किस्में तापमान को ज्यादा सहन कर सकती है। जिन्हे मैदानी भागों में आसानी से उगाया जा सकता है ।
भूमि कि तैयारी :-
स्ट्राबेरी कि खेती उसर एवं मटियार भूमि को छोड़कर सभी प्रकार कि भूमि में कि जा सकती है । किन्तु जीवांश युक्त हलकी दोमट भूमि जिसमे जल निकास कि समुचित व्यवस्था तथा जिसका पी.एच.मान.०.५ -८.५ के मध्य हो उत्तम मानी जाती है ।
प्रजातियाँ :-
भारत वर्ष में उगाई जाने वाली स्ट्राबेरी कि अधिकांश किस्मे आयातित है इसकी प्रचलित प्रजातियाँ चंदेलर, स्वीट चार्ली, ज्योलीकोट , रेड्कोट, ई.सी.३६२६०२ तथा स्टील मास्ट है जबकि व्यावसायिक रूप से स्वीट चार्ली प्रजाति अच्छी साबित हुई है जिसकी उपज लगभग ७० क्विंटल से ७५ क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त कि जा सकती है , इस प्रजाति के पौधे मेसर्स विमको शीडलिंग लि.के अनुसन्धान एवं विकास केंद्र बागवाला रुद्रपुर से प्राप्त किये जा सकते है ।
भेंट कलम लगाना :-
इस तरीके में मूल वृंत , रूट स्टाक वाले पौधे , वंशज, सायन पौधे के आसपास लगाए जाते है । इस प्रक्रिया में मूलवृंत कि छाल ३-५ से.मी.कि लम्बाई तक छील ली जाती है । वंशज वृक्ष कि कि भी इतने ही भाग कि छाल छील ली जाती है । अब इन दोनों कि छिली छाल वाले स्थान से जोड़कर एक साथ बांध दिया जाता है । इसके लगभग ३०-४० दिन बाद मूलवृंत को कलम लगाए गई वंशज पौधे के ठीक ऊपर से काट देते है । लेकिन यह तरीका कठिन और खर्चीला है क्योंकि गमलों में लगाए गए मूल वृन्तों को नियमित रूप से पानी देना पड़ता है । और उनकी देखभाल भी करनी पड़ती है ।
आर्गनिक खाद :-
स्ट्राबेरी में खाद के संतुलित प्रयोग का महत्व पूर्ण स्थान है प्रति एकड़ खेत में १० - १२ टन गोबर कि सड़ी हुयी खाद बुवाई से १० - १५ दिन पहले सामान मात्रा में खेत में बिखेर कर जुताई कर खेत तैयार करना चाहिए गोबर कि खाद देने से भूमि में जल धारण कि क्षमता बढ़ जाती है इसके अतिरिक्त अंतिम जुताई से पहले २ बैग - माइक्रो फर्टी सिटी कम्पोस्ट वजन ४० किलो ग्राम , २ बैग माइक्रो नीम वजन २० किलो ग्राम , २ बैग - माइक्रो भू पावर वजन १० किलो ग्राम , २ बैग - भू पावर वजन ५ ० किलो ग्राम , २ बैग सुपर गोल्ड कैल्सी फर्ट वजन १० किलो ग्राम इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर मिश्रण तैयार कर सामान मात्रा में खेत में बिखेर कर जुताई कर खेत तैयार कर बुवाई या रोपाई करना चाहिए , १५- २० दिन बाद ५०० मिली लीटर माइक्रो झाइम और २ किलो सुपर गोल्ड और ५ लीटर नीम का काढ़ा ४०० लीटर पानी में अच्छी तरह घोलकर मिलाकर पम्प द्वारा तर बतर कर प्रति सप्ताह या प्रति १५ - २० दिन बाद लगातार छिड़काव करते रहे इस तरह से आप भरपूर तंदरुस्त फस

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